4- 'जीवन की गूँज' लोकार्पण पर कृति परचिय, कृतिकार परिचय, वक्‍ताओं के आलेख और विचार

“जीवन की गूँज” जीवन से आप्लावित कृति- डॉ0 कंचना सक्सैना

बायें दायें- डॉ- अशोक मेहता, डॉ- कंचना सक्‍सैना, श्री रघुराज सिंह हाड़ा, डॉ- औंकारनाथ चतुर्वेदी, आचार्य ब्रजमोहन मधुर, कृतिकार 'आकुल' और श्री रघुनाथ मिश्र
गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’ की पुस्तक ‘जीवन की गूँज’ के लोकार्पण में कृति परिचय राजकीय महाविद्यालय, कोटा की व्याख्याता डॉ0 कंचना सक्सैना ने दिया।
डॉ0 कंचना सक्सैना ने अपने आलेख को नाम दिया ‘जीवन की गूँज’ जीवन से आप्लावित कृति। वे लिखती हैं-
एक वक्त था, जब ज़िन्दगी बाहों के घेरे में केन्द्रित हो गयी थी, सिमटती चली गयी थी। एक वक्त आया, जब न घेरा रहा और न ज़िन्दगी। हम कहाँ से कहाँ आ गये? यदि हमें यहीं आना था, तो हम चले क्यों? सपने क्यों देखे? किसने कहा था कि हमें उस माहौल से निकाल लो, जहाँ दम घुटता है और बिना कफ़न के ही हजारों सपने दफ़न जो जाते हैं। पिछले वर्षों में हमने जो किया, अंजाम सामने है।
आज ज़िन्दगी की हर खु़शी का नाम एक है, अर्थ एक है और विशेषण एक हैं, जिसे सर्वनामों के सहारे कहना हो तो हम सकते हैं कि तुम, तुम्हारा, तुमसे जुड़ा सब कुछ। लगता है आज सारे विशेषण नुच गये हैं, छिन गये हैं और रह गये हैं मात्र सर्वनाम, जो संज्ञा के क़रीबी दोस्त हैं। जब सर्वनाम ही रह गये हैं, तो मन की दौड़ तेज हो जाती है। उस ज़िन्दगी की तरह, जो नामहीन हो गयी है। इस नामहीन ज़िन्दगी के अंधेरे बंद कमरों में जो कैद है, उसे समझने के लिए यथार्थ का धरातल जितना आवश्यस है, उतनी अहं कल्पना की ऊष्मा। ऐसी ही ऊबड़-खाबड़, मधुर एवं तिक्त सम्बंधों की पहचान की है श्री भट्ट ने। इनको समझने के लिए एक ओर भीषण तपती आग की आवश्यकता है, तो दूसरी ओर शीतल मन्द फुहार की। हमें वस्तुतत: झील और झ‍रने के अंतर को समझना होगा। आज कवि अपनी ज़िन्दगी और उससे जुड़ी स्थितियों के ग्राफ आदमी की भाषा में उतार रहा है, नक्श कर रहा है, उन समूचे पलों को, जिसमें आदमी मर-खप रहा है, जी कर मिट रहा है और मिटते हुए भी एक आस्था, एक जिजीविषा के लिए हाँफ रहा है। युगबोध की अभिव्यंजना के साथ विरोधी भावों को उद्वेलित करना कवि के लिए इस लिये भी सम्भव रहा है कि ज़िन्दगी की हर धड़कन अथवा नब्‍ज़ को उन्होंने पूरी तरह टटोला है। समकालीनता हमेशा जीवन सन्दर्भों से जुड़ने में होती है, जो कवि देश काल निरपेक्ष सार्वभौम और शाश्वत सत्यों पर बल देते हैं, वे सदैव समकालीनता से परे होते हैं, चाहे वे आज के कवि हों या पहले के। पहले के कवि भी आज के सच से जुड़े हुए हैं। केदारनाथ अग्रवाल जब यह लिखते हैं “बाप बेचता है, भूख से बेहाल होकर” तो तुलसी की “बेचत बेटा बेटकी” पंक्ति गूँजती है। इसी प्रकार इब्बार इब्बी में कबीर गूँजते हैं।
भूमंडलीकरण के इस दौर में बहुत सारी हाशिये पर पड़ी चीजें प्रमुख हो गयी हैं। इसमें हाशिये पर धकेले गये साधारण जन भी उभरकर आए हैं। श्री भट्ट ने अपनी सूक्ष्मदर्शी दृष्टि से सभी विषयों को भावोर्मियों की लड़ियों में शब्दों के माध्यम से ऐसे पिरोया है कि पाठक मात्र आंदोलित हुए बिना नहीं रहता। विद्वानों की कुल परम्परा में जन्मे श्री भट्ट पर अपने फुफेरे अग्रज पं0 गदाधर भट्ट के साहित्यिक संस्कार एवं विचारों का पर्याप्त प्रभाव स्पष्ट‍ दृष्टिगोचर होता है। ‘पूत के पाँव पालने देख, बता सकता हूँ’ भारी लेख को चरितार्थ करते आप बाल्यावस्था से ही अनवरत लेखन कार्य में संलग्न रहे।
अनुभूत सत्य के उद्घाटन में कवि का व्यापक दृष्टिकोण देश काल से परे विश्व के विस्‍तृत फलक को समाहित किये है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से आड़ोलित एवं आप्लावित आपकी चिन्तना निश्चय ही काल और समय की माँग के अनुकूल है। बाजारवाद एवं वैश्वीकरण के प्रभावस्वरूप उत्पन्न स्थिति में आम आदमी का संघर्ष, पीड़ा, घुटन, संत्रास के साथ रिसते हुए रिश्तों के प्रति कवि का सम्वेदनशील मन करुणाश्रु प्रवाहित करता है।
‘जीवन की गूँज’ को 10 विभागों अर्थात् श्रीकृष्णार्पणम्, जीवन की गूँज, बाल-जगत्, मित्र, शृंगार-सजनी, प्रकृति, होली, मेरा भारत महान्, नन्हीं कवितायें तथा स्वध्येय में बाँटा है। कई काल खंडों में रचित कविताओं को 240 पृष्ठीय पुस्तक में प्रश्रय मिला है। भावोद्गारों को ब्रज एवं राजस्थानी के रंग कलशों में न केवल उँडेला है, अपितु दर्शन और अध्यात्म को भी संस्पर्श किया है। कहीं शृंगार से प्रेरित, तो कहीं भक्ति से। कहीं बालहठ से आवेष्ठित, तो कहीं प्राकृतिक सौंदर्य से आप्लावित। ब्रजभूमि का मोह संवरण लेखक नहीं कर पाये और स्थान-स्थान पर उसे अपने काव्य में आश्रय प्रदान किया है। गृहस्वामिनी तथा जीवन के मोह ने शृंगारिक कविताओं को जन्म दिया है और मित्रों के सम्बल ने ‘सखा बत्तीसी’ का सृजन करवाया है। वस्तुत: कृति का शीर्षक ‘जीवन की गूँज’ पूर्णत: सार्थक एवं सटीक है। जीवन के विविध क्षेत्रों की गूँज पुस्तक में ध्वनित अथवा गुंजायमान है।
कृष्णावतार एवं महाभारत के प्रति नित्य नवीन अवधारणाओं को कवि ने यथा नाम तथा गुण को चरितार्थ करते आकुलता के साथ वर्णित किया। ‘जीवन की गूँज’ में कवि की दार्शनिकता रेखांकित है। यद्यपि मृत्यु शाश्वत सत्य है, तथापि हम इससे बेखबर हैं। कवि इस सत्य से अवगत करवाकर कहते हैं कि इस जीवन यज्ञ में अज्ञान की समिधा होम कर दें। कविता का अंश दृष्टव्य है-
मृत्यु तो अपरिहार्य है, जीवन तेरा शतायु हो।
संकल्प कर, कर यज्ञ तू
दे आहुति अज्ञान की
अभिकल्प कर मन तृप्त कर
न तन तेरा अल्पायु हो। पृ0- 37
पंचतत्‍व-  कवि त्रिदोषों (वात पित्त कफ) से बचकर निकलना कंटकाकीर्ण मार्ग से बचकर निकलने के समान है। मृत्यु दैहिक नहीं, निराकार है, किन्तु वह अपने अस्तित्व के अहसास निरंतर करवाती है-
फिर भी न लगा कोई पास आ रहा है
तेरे जीवन में तेरे डगमगाते जर्जर शरीर को
पंचतत्‍व में विलीन करने के लिए। पृ0- 41
संकल्प ले – आज मानव में कर्तव्य अथवा संकल्प का अभाव दिखता है। कवि की आस्था कर्मण्येवाधिकारस्ते में सूचित होती है-
चल पथिक! कुछ तो सहेजा जायेगा
कंधों पे तेरे स्वोर्ग है कोई तो हाथ बढ़ायेगा
पदचिह्न ही हैं बहुत कोई चले इस धार पर
पहले पदचिह्न से इतिहास लिखा जायेगा। पृ0- 44
यह जीवन महावटवृक्ष है- कविता पूर्णत: भारतीय संस्कृति से आप्लावित -
 देवता भी जिसके लिए लालायित
धरा पर वह कल्प वृक्ष है।
यह जीवन महावटवृक्ष है। पृ0- 47
स्वयंसिद्ध – कवि ने स्वयंसिद्ध उपमान के माध्य्म से व्यक्ति को पत्थर के समान तराशने की आवश्यकता पर बल दिया, शिल्पी ही उसके आकार-प्रकार को तराश सकता है-
तुम तो स्वायंसिद्ध हो
रहो निडर कि कुछ अस्तित्व‍ है तुम्हारा। पृ0- 53
हाथों की लकीरें- कविता में कवि मानव को सचेत करता है कि अच्छी रेखाओं से निश्चिन्त न बैठकर बुरी रेखाओं के लिए अपने भविष्यि को सँवार-
निकल इस कारा से
खोल इन हाथों को
मत चल इन लकीरों पर
न जाने कितनी लकीरें जो
तुझे अभी तक नहीं सूझी
तुझे रोक रही हैं----- पृ0- 55
अर्थ- इस कविता में अर्थ के अनेकार्थ पृथ्‍वी, धन ओर अरथी। अर्थ के अभाव में मानव जीवन अरथी तुल्य है। ये कविता निश्चय ही अर्थ गाम्भीर्य से परिपूर्ण-
अर्थ का तो अर्थ छिपा हुआ है अर्थ में।
कभी समर्थ में और कभी असमर्थ में।
अर्थ ही न हो तो वो दीन अर्थहीन,
डूबा रहेगा विषाक्त विचारों के गर्त में। पृ0- 57
सूरज की तरह- कवि कहते हैं कि इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में प्राकृतिक ऊष्मा से हम अपना जीवन संयमित कर कुछ कर गुजरने की तमन्‍ना रखें-
तुझे जरा भी खेद नहीं होगा
कि तू पीछे रह गया
पीछे तो रह जायेगा शहर
जो सो रहा होगा---- पृ0- 63
नींव का पत्थर- कवि इमारत की सराहना तथा नींव की ईंट के त्याग से बेखबर तथ्य से चिन्तित है। हम इमारत देखते हैं, लेकिन उसके मूल में छिपे तथ्य को विस्मृत कर जाते हैं-
अकेले चले तो क्या हुआ
तुमने तो इतने चिह्न छोड़े हैं
कि हर युग में तुम्हा्रा
इतिहास लिखा जायेगा। पृ0- 71
मन- अमूर्त हो कर भी मन का मूर्त सत्ता की तरह अपना अस्तित्व है-
मेरा व्यक्तित्व मेरा है उसका अस्तित्व उसका है
एक तालमेल है हम दोनों के मध्य
उसकी स्वच्छंदता को न छेड़ूँ,
मैं इक बार भी---- पृ0- 74-75
मन की मान- इन दोहों में कबीर के ‘तू तू करता तू भया’ की अनुगूँज परिलक्षित होती है-
मन मन करता मन भरा, मन सा ना जो होय।
मन का मारा सब जगत्, तू काहे को रोय। पृ0- 81
‘होय वहीं जो राम रचि राखा’ की आवृत्ति हमें कविता में ‘वही होगा राखा रचि रामा’ में मिलती है।
भाषा की पीड़ा- कवि भाषा की पीड़ा से पीड़ित है। स्वाधीन भारत में भी हम भाषिक दृष्टि से गुलाम हैं। भाषा को न तो हम शुद्ध रूप में बोलते हैं और न ही लिख पाते हैं-
मदान्ध अमर्यादित बुद्धिजीवियों का
ये अमिष परिणाम है।
वे लिखते हैं-
पर व्यर्थ और अनुचित
पराये शब्दों को घसीट कर
लाज से सिमटी पंक्ति की
भाषा के ही समाज में
क्या शान है। पृ0- 88
आत्मग्लानि- स्त्री-पुरुष समानता का डंका बजाने वाले इस देश में क्या स्त्री को यथोचित सम्मान मिल रहा है-
परिचर्चा हूँ एक लाश की
जो अंधकार में
आशाओं के
पत्थंरों की दीवारों से
टकरा टकरा कर
हार के क्षत-विक्षत
हो चुकी हूँ मैं। पृ0- 91
लक्ष्य का संधान कर- बिना लक्ष्‍य के भेड़चाल सा जीवन जीना, अपनी ऊर्जा व्यवर्थ नष्ट करना है- मान कर, सम्मान कर, संकल्प कर, अनुमान कर।
कर प्रण अटल, दृढ़ निश्चाय कर और लक्ष्य का संधान कर। पृ0- 101
कुछ कर दिखलायें- कुछ हलचल, कुछ स्पनन्दन, कुछ रोमान्च और कुछ नया करने की भावना अवश्य होनी चाहिए, क्योंकि गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में-
अभिलाषा है फूलों सा महकें, सूना-सूना है उपवन।
अभिलाषा है चिड़ियों सा चहकें, सूना-सूना है आँगन। पृ0- 105
कल- कल कभी नहीं आता, हमें भूत के आदर्शों के साथ वर्तमान की क्षमता को पहचानते हुए भविष्य के सपने सँजोने हैं-
वह कल था
वह आजकल है और
अवश्यह ही कल होगा। पृ0- 107
मौन- मौन मृत्यु, शांति, पीड़ा, संयम, धैर्य तथा अनुशासन भी है। आवश्यकता है इसके मर्म को छूने की-
मौन में ही छिपा है
जीवन का मर्म
ढ़ूँढ़ना है शेष
मैं कौन हूँ?
तू कौन है? पृ0- 109
प्रकाश पर्व- दीपोत्सव के प्रकाश से ग्रह भी चमत्‍कृत हैं-
सूर्य, चन्द्र और आकाश भी दिग्भ्रमित
सैंकड़ों प्रकाशवर्ष दूर
यह कैसा अनोखा प्रकाश !! पृ0- 111
झोंपड़ पट्टी- इनका तांडव अपने जघन्य रूप में वहाँ की अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और सांस्कृतिक स्वरूप को प्रभावित करता है-
महामारी की तरह फैले
झोंपड़ियों के मेले
हर शहर में इधर-उधर
जहाँ–तहाँ मैले कुचैले। पृ0- 115
मैं छोटी सी लड़की- कविता में देश की विडम्बना देखिये कि बच्चे देश तो जानते हैं किन्तु देशभक्ति नहीं-
मैं छोटी सी लड़की
नहीं जानती आजादी क्या होती है? पृ0- 127
मेरा भारत महान्- हमें अपने सांस्कृतिक अतीत को आत्मसात् करना होगा। समसामयिक परिवेश में सांस्कृतिक विरासत अथवा धरोहर को बचाना अहम् पहलू है-
नभ-जल-थल सीमा पर अपना ध्वर निर्भय गणमान्य रहे।
वेदों से अभिमंत्रित मेरा भारतवर्ष महान् रहे। पृ0- 213
इंसान बनेंगे धरती पर- मनुष्य देह सर्वोपरि है। माया, मोह, मत्सर की धूल को हटाने के संस्कारों का कल्प तो हमें करना ही होगा-
नहीं यूँ ही जनम लिया तुमने,
नहीं बोझ बनोगे धरती पर।
नहीं व्यर्थ गँवाओगे यूँ दिन,
इंसान बनोगे धरती पर। पृ0- 215
आओ मिल कर एक बनें फि‍र- आज सर्वत्र आतंकवाद, अनाचार, अत्याचार की मुनादी फेरी जा रही है। हुतात्माओं के त्याग को हमें विफल नहीं होने देना है। कवि की चिन्ता है कि पतन चरम पर है अत: हमें सत्यं-शिवं-सुंदरं की स्थापना पर बल देना है, ताकि लोक कल्याण हो-
आजादी का मतलब क्या है?
आबादी का मतलब क्या है?
देशभक्ति और मज़हब क्या है?
 भूल चुके हैं, याद करें फि‍र।
आओ मिल कर एक बनें फि‍र। पृ0- 217
कुछ इस तरह- कविता में जीवन के प्रतिमान बताये हैं, जिन पर चलकर निश्चय ही स्वयं के साथ देश की एकता, अखण्डता और अक्षुण्णता में उसका योगदान अप्रतिम होगा-
ग़रीबों के हक़ की बात करें।
इंसानियत के दुश्मनों का करें बहिष्कार।
बच्चों की सेहत पर दें ध्यान,
नारी न हो कहीं शर्मसार। पृ0- 229

ब्रजभाषा और हिन्दी में उर्दू के शब्दों का प्रयोग कवि की विद्वत्ता अथवा बहुभाषा विषयक ज्ञान को ही सूचित नहीं करता, वरन् भाषा की त्रिवेणी को प्रभावोत्पादक बनाता है। ‘आकुल’ जी की कविता में काव्यात्मकता अर्थात् लयात्मकता तथा तुकान्तता का अभाव है, लेकिन नयी कविता के पक्षधर होने पर उनकी कविता में वह ऊर्जा है जो तुकान्त कविताओं में नहीं होती। यही कारण है कि जहाँ भाषा की द़ष्टि से ‘आकुल’ प्रोढ़, परिष्कृत, परिमार्जित एवं परिनिष्ठित भाषा के धनी हैं, वहीं भाव की दृष्टि से भी कविता प्राणवान् और ऊर्जावान् बन पड़ी हैं। ब्रजभाषा पर तो कदाचित् आपका अपूर्व अधिकार है। कहीं-कहीं मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग यथा ‘न नौ मन मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’, ‘नाच न जाने आँगन टेढ़ा’ और 'मन चंगा तो कठौती में गंगा’ भाषा की अभिवृद्धि में चार चाँद लगाते हैं। उपमान जीवन से ग्रहीत हैं। कविता के साथ गद्य में कवि के विचार उसे सम
झने में सहायक तो हैं ही, साथ ही कवि का ये नवीन प्रयोग प्रशंसनीय है। एकाध त्रुटि यथा अनेकों का प्रयोग, अनेक स्थान पर खलता है। नन्हीं कविताओं में क्षणिक भावों को लेखनी के माध्यम से सशक्त अभिव्‍यक्ति प्रदान की है जैसे-
बसन्त
बस अंत
सभी दर्द, व्यथा, घृणा
द्वेष दम्भ स्वार्थ और भ्रष्टाचार का।
बस अंत, बस अंत
तभी सार्थक बसंत।
एक सटीक व्याख्या। लेखक की विद्वत्ता का भी कहीं अंत नहीं है। जापानी विधा हाइकू में निबद्ध त्रिपदीय रचनाओं की परत दर परत सींवन उधेड़ी है। स्वध्येय के अंतर्गत अनवरत सृजन कर्म की ओर संकेत करते हैं।
कवि का स्वध्येय अविराम, अविरल गति से अबाधित रूप में चलता रहे। मसिदानी कभी सूखे नहीं। मन विचार और कर्म से एकरूपता के साथ जीवन सत्यं-शिवं-सुन्दरं से परिपूर्ण बने। इसी शुभकामना के साथ-

डॉ0 कंचना सक्सैना
22-08-2010

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें