7 अक्तूबर 2017

यह चला चली की है दुनिया (गीतिका)



छंद-द्विगुणित पदपादाकुलक (राधेश्‍यामी) चौपाई
विधान- 16,16 आदि गुरु एवं अंत दो गुरु, द्विकल से आरंभ तो 
बाद में दो त्रिकल या दो चौकल हों तो अच्‍छा.
(लय- उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है)    
पदांत- की है दुनिया
समांत- अली

तेरा-मेरा क्‍या है प्राणी, यह चला चली की है दुनिया.
तू चपल बने या चपला बन, यह बाहुबली की है दुनिया.

सीधे का यह संसार नहीं, सब अवसरवादी फलते हैं,
यदि चाटुकारिता दाँव खबर, ये’ विरुदावली की है दुनिया.

मदनोत्‍सव हों दिन रात जहाँ, हों संत समागम जलसों से
हे लोकतंत्र की लाठी से,  अदला बदली की है दुनिया  

सबका अपना व्‍यापार चले, बस उँगली उठे न धर्मों पर,
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों की, रख रखावली की है दुनिया.

युग युग से हारा है मानव,  जब भी त्रिनेत्र का नेत्र हिला,
विध्‍वंस किया है’ प्रकृति का जब, उसने खाली की है दुनिया.  

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