8 मार्च 2017

बेटी, तुम्‍हें आराम की आवश्‍यकता है (एक सत्‍य लघु कथा)


 (अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च पर ) 

उस दिन प्रकृति ने भी नारी की अस्मिता की रक्षा की थी, लोकलाज और लज्‍जा से. जी हाँ, सत्‍य कथा है. मार्च का महीना था. गुलाबी सर्दी केवल सवेरे की रह गई थी. मैं सवेरे-सवेरे प्रतिदिन लगभग साढ़े छ: बजे से साढ़े सात बजे तक घर से थोड़ी दूर सिद्धि विनायक उद्यान के लिए प्रात:कालीन भ्रमण पर निकलता था और उद्यान के पैदल पथ पर आधा घंटे तक लगातार हल्‍के कदमों से चक्‍कर लगाता था. पिछले दो साल से यह सिलसिला चल रहा था. पार्क में बहुत सी महिलाएँ-पुरुष आते थे. कुछ न कुछ व्‍यायाम, या पैदल पथ पर चलते थे, कुर्सियों पर बैठ कर ताजा हवा लेते थे, योग करते थे. कभी लोगों की संख्‍या ज्‍यादा होती थी, कभी कम. उनमें से पिछले एक साल से लगभग मेरे ही समय पर एक नवयुवती लगभग 25-26 वर्ष की होगी वह भी पैदल पथ पर चक्‍कर लगाती थी. मेरी गति से लगभग दुगुनी तिगनी गति से चलते हुए. मेरे मन में विपरीत लिंग का एक स्‍वाभाविक आकर्षण था. उसका पीछे का ही भाग प्राय: देखने में आता था. मैंने कभी उसके चेहरे को देखने का प्रयास भी नहीं किया. उसकी उम्र के अनुसार उसके गठन पर संतुष्ट था, किंतु कभी कोई विचित्र बात नहीं देखी थी. 

 सब कुछ सामान्‍य चल रहा था. छ: माह के लगभग एक दिन वह मुझसे पैदल पथ पर आगे निकलते हुए टकराते हुए बची. टकराई नहीं. उसने मुझे देखा और मुस्‍कुरा दी. मैं भी स्‍वत: मुस्‍कुरा दिया, ‘कोई बात नहीं’ के लिए मौन स्‍वीकृति में सिर हिला दिया. वह आगे निकल गयी. लगभग दो महीने बाद वह जब मुझसे आगे निकलते हुए तीन-चार चक्‍कर लगा चुकी थी, एक चक्‍कर में मुझसे आगे निकलती हुई बोली- ‘नमस्‍ते अंकिल.’ मैंने भी ‘नमस्‍ते’ कह दिया. पर, एक दिन एक अजीब सी घटना हो गयी. पार्क में हम केवल दो पैदल पथ पर चक्‍कर लगा रहे थे और एक 70-80 वर्ष के बुजुर्ग व्‍यक्ति एक आराम कुर्सी पर बैठे ताजा हवा ले रहे थे. वह मेरे पास से ‘नमस्‍ते’ कहते हुए निकली. मेरा ध्‍यान उसके आगे निकलने के बाद उसके पैरों की तरफ गया. मैं अंदर तक काँप गया. मैं दूर तक उसे जाते हुए देखता रहा. चारों तरफ देखा. और कोई वहाँ नहीं था और न आता दिखाई दे रहा था. बाहर सड़क पर अवश्‍य लोग आ जा रहे थे. वह चक्‍कर लगाते हुए मेरे नजदीक आ कर आगे निकली ही थी कि मैंने उसे आवाज दे कर रोका- ‘बेटी, रुको.’ वह ठिठक कर रुक गयी. मैंने उससे एक क्षण नज़रें मिलाई और उसके पैरों की तरफ देखते हुए हिम्‍मत करके बोल गया- ‘बेटी, तुम घर जाओ, तुम्‍हें आराम की आवश्‍यकता है.’ वह चौंक गई थी.  मेरी नज़रे क्षण भर को फिर मिली और मैं तुरंत आगे निकल गया. मैं दो क़दम आगे बढ़ते हुए इतना ही देख पाया कि वह नीचे अपने पैरों की ओर देख रही थी. मैं आगे पैदल पथ जा कर मुड़ा और तिरछी दृष्टि से इतना ही देख पाया कि वह तुरंत उसी पैदल पथ पर पीछे मुड़ कर द्वार की ओर तेज क़दम से बढ़ी और बाहर निकल कर ओझल हो गयी. मैंने लंबी साँस ली. मैं फिर आगे पैदल पथ पर घूम नहीं सका. प्रात:कालीन ठंडक से ठंडी आराम कुर्सी पर बैठ गया, पर सारा शरीर पसीने से लथपथ था. मैंने मन ही मन प्रकृति का आभार व्‍यक्‍त किया और संयत होने पर उठ कर पैदल पथ पर पुन: एक चक्‍कर लगा कर द्वार से निकल कर घर चल दिया.

रास्‍ते में वहीं दृश्‍य मेरे मन में बार-बार दोहरा रहा था. उसके पैरों पर अंतर्स्राव से रक्‍त सलवार से बाहर पिंडलियों पर बह कर आ गया था. उस नवयुवती को यह आभास तक नहीं हुआ था. वह फिर कभी पार्क में सुबह मेरे सामने आने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाई थी, क्‍योंकि वह आज तक मेरे आने जाने के समय में पार्क में घूमने नहीं आई.

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