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26 अगस्त 2012
सान्निध्य सेतु: साहित्यकार-5 में रघुनाथ मिश्र और ‘आकुल’
सान्निध्य सेतु: साहित्यकार-5 में रघुनाथ मिश्र और ‘आकुल’: निरुपमा प्रकाशन मेरठ की ‘साहित्यकार’ प्रकाशन शृंखला की पाँचवी कड़ी में पाँच कवियों में कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार और जनकवि वाचस्पति श्री...
23 अगस्त 2012
सान्निध्य सेतु: हिन्दी दिवस पर 14 सितम्बर को हाड़ौती के कवि 102 व...
सान्निध्य सेतु: हिन्दी दिवस पर 14 सितम्बर को हाड़ौती के कवि 102 व...: 14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर हाड़ौती के प्रख्यात कवि 102 वर्षीय डा0 भँवर लाल तिवारी ‘भ्रमर’ को पं0 ब्रज बहादुर पाण्डेय स्मृति सम्...
20 अगस्त 2012
भाईचारा बढ़े
भाईचारा बढ़े, संग हम, सब त्योहार मनायें।
एक ही घर, परिवार, शहर के हैं, सबको अपनायें।
क्यूँ आतंक, घृणा, बर्बरता, फैली गली-गली है।
क्यूँ बरपाती क़हर फ़जाँ, यह तो यहाँ
बढ़ी-पली है।
पैठी हुई जड़ें गहरी, संस्कृति की
युगों-युगों से,
आएँ कैसे भी ज़लज़ले, यह कभी नहीं पिघली
है।
मिलें राह जो भूले-भटके, उनको राह बतायें।
भाईचारा बढ़े, संग हम, सब त्योहार मनायें।।
दामन ना छूटे सच का, ना लालच लूटे घर को।
हिंसा मजहब के दम, जेहादी बन शहर-शहर को।
शह देते जो क़ाफ़िर हैं, दुश्मन हैं, अम्नो वफ़ा
के,
बच के रहना और बचाना है, हर दीद-ए-तर को।
बात तो तब है, घर-घर को हम, एक मिसाल बनायें।
भाईचारा बढ़े संग हम सब त्योहार मनायें।।
ईद-दिवाली-राखी, मस्जिद-मंदिर-वाहे गुरु द्वारे।
मिसल सभी हैं बेमिसाल, मंज़िल इक, रस्ते सारे।
देते हैं सब सीख, एक ईश्वर है, एक खुदा है,
इक आकाश तले लख तारे, हम जमीन पर सारे।
अम्नो वफ़ा की राह चलें, जीवन रोशन कर जायें।।
भाईचारा बढ़े संग हम सब त्योहार मनायें।
कोटा- 20-08-2012
15 अगस्त 2012
आज जो भी है वतन
15 अगस्त 2012 पर सभी को नमन शुभकमानायें
वंदे मातरम्
इस पर्व पर हुतात्माओं को श्रद्धांजलि
जिनके अथक परिश्रम से मिली इस सौगात को मैं और मेरे देशवासी सहेज के रखेंगे।
उनके आत्मबलिदान को हम कभी विस्मृत नहीं कर पायेंगे।- आकुल
-0-
आज जो भी है वतन आज़ादी की सौग़ात है।
कितने शहीदों की शहादत बोलता इतिहास है।
कितने वीरों की विरासत तौलता इतिहास है।
देश की ख़ातिर किये हैं ज़ाँबाज़ों ने फैसले,
सुनके दिल दहलता है वह खौलता इतिहास है।
देश है सर्वोपरि
न कोई जात
पाँत है।
आज जो भी है वतन, आज़ादी की सौग़ात है।
आज़ादी से पाई है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
सर उठा के जीने की, कुछ करने की प्रतिबद्धता।
सामर्थ्य कर गुज़रने का, हौसला मर मिटने का,
काम आएँ देश के कुछ करने की कटिबद्धता।
सर झुके न देश का बस एक ही ज़ज़्बात है।
आज जो भी है वतन, आज़ादी की सौग़ात है।
सोएँगे बेफ़िक्र हो लुटेंगे यह सच्चाई है।
एक जुट होना ही होगा देश पे बन आई है।
आतंक भ्रष्टाचार ने अम्नो वफ़ा पे घात कर,
दी चुनौती है हमें फ़ज़ा भी अब शरमाई है।
पत्थर जवाब ईंट का, घात का प्रतिघात है।
आज जो भी है वतन आज़ादी की सौग़ात है।
महँगाई, घूस, वोट की राजनीति अत्यचार है।
क़ानून का मखौल भी अब होता बार बार है।
जनतंत्र में जनता ही त्रस्त ख़ौफ़ में जीती रहे,
रक्षक बने भक्षक तो कैसा कौनसा उपचार है।
ख़ुशहाल हो हर हाल में वतन तो कोई बात है।
आज जो भी है वतन आज़ादी की सौग़ात है।
करें नमन शहीदों, हुतात्माओं और वीरों को।
बापू, जवाहर, लोहपुरुष और सैंकड़ों वज़ीरों को।
बनाना है सिरमौर फहराना है परचम विश्व में,
अक्षुण्ण अपनी सभ्यता संस्कृति की नज़ीरों को ,
गिद्धदृष्टि डाले ना किसी की भी औक़ात है।
आज जो भी है वतन, आज़ादी की सौग़ात है।
आज जो भी है वतन, आज़ादी की सौग़ात है।
कोटा 15-08-2012
11 अगस्त 2012
यदा यदा हि धर्मस्य
मानव देह धरी प्रकृति सूँ मन सकुचो घबरायौ।
सच सुनकै कि देवकीनन्दन जसुमति पेट न जायौ।
सोच सोच गोकुल की दुनिया को समझहि परायौ।
सुन बतियन वसुदेव, दृगअन में घन उमरो बरसायौ।
कौन मोह जाऊँ गोकुल मैं कौन घड़ी यहाँ आयौ।
कछु दिन और रुके मधूसूदन चैन फिरहूँ न आयौ।
परम आत्मा जानै सब कछु ‘आकुल’ देह धरायौ।
कर्म क्रिया मानव गुण अवगुण चित्त तनिक भरमायौ।।
सच सुनकै कि देवकीनन्दन जसुमति पेट न जायौ।
सोच सोच गोकुल की दुनिया को समझहि परायौ।
सुन बतियन वसुदेव, दृगअन में घन उमरो बरसायौ।
कौन मोह जाऊँ गोकुल मैं कौन घड़ी यहाँ आयौ।
कछु दिन और रुके मधूसूदन चैन फिरहूँ न आयौ।
परम आत्मा जानै सब कछु ‘आकुल’ देह धरायौ।
कर्म क्रिया मानव गुण अवगुण चित्त तनिक भरमायौ।।
रूप सरूप स्वाद मधु फीका मानिक सुवरन हीरा।
ममता उघरि परै नैनन सौं तुच्छ ये श्याम सरीरा।
कूल कदम्ब की छाँव में सोचैं घनस्यामा यमु तीरा।
कौन काम आये गोकुल सौं कौन वचन भई पीरा।
आँखिन बन्द करी सुइ देखौ जसुमति विकल सरीरा।
सच कहौ जाय ना होई अनर्था को विधि मिटै न लकीरा।
भ्रमित करौ जग पुरसोत्तम ने ‘आकुल’ सह सब पीरा।
जसुमति जीवन गयौ वियोग में नन्द कौ जीव अधीरा।।
ममता उघरि परै नैनन सौं तुच्छ ये श्याम सरीरा।
कूल कदम्ब की छाँव में सोचैं घनस्यामा यमु तीरा।
कौन काम आये गोकुल सौं कौन वचन भई पीरा।
आँखिन बन्द करी सुइ देखौ जसुमति विकल सरीरा।
सच कहौ जाय ना होई अनर्था को विधि मिटै न लकीरा।
भ्रमित करौ जग पुरसोत्तम ने ‘आकुल’ सह सब पीरा।
जसुमति जीवन गयौ वियोग में नन्द कौ जीव अधीरा।।
माया सौं रचि रास निकुञ्जन मथुरा गोकुल कीन्हा।
धार उद्धार करौ भूतल ब्रज कंस नगरिया ही ना।
महाभारती कहै सकौ इन्हें योगी कृष्ण दम्भी ना।
पूर्णपुरुस पुरुसोत्तम भू पर मानव देह धरी ना।
माया ही सब कहौ सच लागे द्वयमत होई सकहि ना।
योग कृष्णा के ‘आकुल’ सब भेद समझि कोई ना।
कहा नन्द जसुमति के कृष्णा कहा देवकी नैना।।
सांख्य योग और कर्म दीक्षा गीता ज्ञान सुनायौ।
वसुदेव सुतम् नन्दनम् देवकी लुप्त कियो बिसरायौ।
बाललीला भई तलक ही वरनन पुस्तकअन में आयौ।
महाभागवत भी मूकहि है कहीं नहीं समझायौ।
कहा भयो जसुदा-वसुदेवा देवकी-नन्द ने पायौ।
सुखदु:ख थोड़ो बहु जो भी कै जीवन यूँ ही गँवायौ।
मानव देह धरी तो ‘आकुल’ मानव करम करायौ।
खबर पड़ै बिन रहे न जसुमति कृष्ण पेट नहीं जायौ।।
वसुदेव सुतम् नन्दनम् देवकी लुप्त कियो बिसरायौ।
बाललीला भई तलक ही वरनन पुस्तकअन में आयौ।
महाभागवत भी मूकहि है कहीं नहीं समझायौ।
कहा भयो जसुदा-वसुदेवा देवकी-नन्द ने पायौ।
सुखदु:ख थोड़ो बहु जो भी कै जीवन यूँ ही गँवायौ।
मानव देह धरी तो ‘आकुल’ मानव करम करायौ।
खबर पड़ै बिन रहे न जसुमति कृष्ण पेट नहीं जायौ।।
मानव देह धरी तो ही तो कुछ अवगुण गुण धारे।
लगे लांछन कीन्हीं किंसा भलै सभी उद्धारे।
प्रेम रास मोह माया सब मानव ही गुण न्यारे।
मानव कर्म करे धर्महि सौं जगहि चरण पखारे।
पूजौ सबनै हि मानहि भगवन भक्ति शब्द उच्चारे।
कवियन वक्ता श्रोता लेखक लक्षहि नाम पुकारे।
माया कहो कहो ‘आकुल’ कछु समझौ छन्द हमारे।
जब जब संकट भूपर आयौ प्रभु मानव देह पधारे।।
लगे लांछन कीन्हीं किंसा भलै सभी उद्धारे।
प्रेम रास मोह माया सब मानव ही गुण न्यारे।
मानव कर्म करे धर्महि सौं जगहि चरण पखारे।
पूजौ सबनै हि मानहि भगवन भक्ति शब्द उच्चारे।
कवियन वक्ता श्रोता लेखक लक्षहि नाम पुकारे।
माया कहो कहो ‘आकुल’ कछु समझौ छन्द हमारे।
जब जब संकट भूपर आयौ प्रभु मानव देह पधारे।।
8 अगस्त 2012
सावन जाने को है
अब तो हो मेहरबान
मेघ , सावन जाने को है
गर्मी से राहत दो
मेघ , सावन जाने को है
छिट-पुट वर्षा,
बूँदा-बाँदी , हरदम उमस बढ़ाती
निर्मल जल की चाहत , अधरस अलस जगाती
मेघ फटे, घनघोर कहीं , कहीं है बाढ़ सताती
वर्षा कहीं-कहीं
जाने क्यों ढेर कहर बरपाती
तकता मेरा शहर मेघ , सावन जाने को है
कुछ घन लाओ संग मेघ , सावन जाने को है।
ताल तलाई भर जाओ
वर्षा पर निर्भर है
खेती , खेत-खेत भर जाओ
सूखी जाए ना रुत
ढेरों आने को त्योहार
ढोल नफीरी चंग संग गाते हैं मेघ मल्हार
छाओ नभ पर मेघ , सावन जाने को है
दो गरज गरज संदेश
मेघ , सावन जाने को है।
मानव प्रकृति है
हमसे , गलती बहुत हुई है
जल संचय, वृक्षारोपण
ना कर, सख्ती बहुत हुई है
पर्यावरण, सघन वन कारण , अनपढ़ आबादी है
खेती पर वर्षा
निर्भरता , रूढ़ीवादी है
इस कारण नहीं सजा
मेघ , सावन जाने को है
इक मौका दो और मेघ , सावन जाने को है
लेंगे हम संकल्प बनेंगे , जागरूक और शिक्षित
निर्मित घर घर कर
देंगे , धरती पर एक परीक्षित
अकर्मण्य अजगरवृत्ति
को खत्म करायेंगे
सहज सुलभ हो निर्भरता
का पाठ पढ़ायेंगे
नन्दन कानन होगी मेघ, सावन जाने को है
धरा रहेगी ॠणी मेघ, सावन जाने को है।
धरा रहेगी ॠणी मेघ, सावन जाने को है।
6 अगस्त 2012
यह पत्थरों का शहर है
यह पत्थरों का शहर है।
बेजान बुत सा खड़ा
इसके सीने में भरा गुबारों का ज़हर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
यहाँ पलती है ज़िन्दगी नासूर सी
यहाँ जलती है ज़िन्दगी काफ़ूर सी
यहाँ बहकती है ज़िन्दगी सुरूर सी
यहाँ तपती है ज़िन्दगी तन्दूर सी
अहसान फ़रामोश इस शहर का अज़ीबो ग़रीब जुनून है
पत्थरों के सीने में यहाँ हरदम उबलता ख़ून है
सूरज के ख़ौफ़ से झुलसता, तपता
यह अंगारों का शहर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
किसी के क़दमों में फलक
किसी की क़िस्मत में फ़लक के सितारे हैं
किसी के आशियाने की निहबान हैं सड़कें
किसी के आशियाने सड़क के किनारे हैं
पशेमा तक नहीं लिए फिरते हैं ज़लज़ले हाथों में
चमन के फूलों का, यायावर घूमना दुश्वार है बाग़ों में
यहाँ हर रात बदलते चाँद पर
बरसता सितारों का क़हर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
इस शहर के पत्थर भी हैं
जहाँ में मशहूर
कोटा साड़ी का जल्वा है
चर्चा है कचौरी का दूर दूर
किस्में नमकीन की हैं लाजवाब
बाफले-बाटी-कत का है दस्तूर
अपनी धुन में जो चलते इंसान की
पत्थरों के शहर में
जिन्दगी चल रही है बदस्तूर
किसकी लगी नज़र कि
ये शहर संगदिल हो गया
चम्बल नदी का वरदान है
यह मुकम्मल हो गया
श्रवण भी समझ बैठा था माता-पिता को बोझ
उन किनारों का शहर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
परत दर परत पत्थरों के
पहाड़ खड़े हैं खाई बढ़ी है
होड़ लगी है गगनचुम्बी इमारतों की
लम्बाई बढ़ी है
क़द छोटा हुआ है इंसानों का
चौड़ाई बढ़ी है
झूठ का मुलम्मा
घूस की मोटाई बढ़ी है
यारी-दोस्ती-मोहब्बतें कम हुई हैं
फ़साद बढ़ा है
इन पहाड़ों को चीरने अब नहीं
कोई फ़रहाद खड़ा है
इस कहकशाँ-ए-शहर में
वो ही रहेगा जिसका दिल
फ़ौलादों का अगर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
चलो 'आकुल' इक छोटा सा
नशेमन ही बनायें
पलक परदे हों, नयन
दरपन ही लगायें
बाहों का दर, दोस्ती का
बंधन ही बनायें
बैठें-मिलें यारों की
अंजुमन ही सजायें
बंसी न बजायेगा नीरो
न फिर रोम जलेगा
घर-घर में दीप जलेंगे
गले दुश्मन भी मिलेगा
शहर न उजड़ेगा इसमें गर
नाख़ुदाओं का बसर है।
फिर न कहेगा कोई
यह पत्थरों का शहर है।।
बेजान बुत सा खड़ा
इसके सीने में भरा गुबारों का ज़हर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
यहाँ पलती है ज़िन्दगी नासूर सी
यहाँ जलती है ज़िन्दगी काफ़ूर सी
यहाँ बहकती है ज़िन्दगी सुरूर सी
यहाँ तपती है ज़िन्दगी तन्दूर सी
अहसान फ़रामोश इस शहर का अज़ीबो ग़रीब जुनून है
पत्थरों के सीने में यहाँ हरदम उबलता ख़ून है
सूरज के ख़ौफ़ से झुलसता, तपता
यह अंगारों का शहर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
किसी के क़दमों में फलक
किसी की क़िस्मत में फ़लक के सितारे हैं
किसी के आशियाने की निहबान हैं सड़कें
किसी के आशियाने सड़क के किनारे हैं
पशेमा तक नहीं लिए फिरते हैं ज़लज़ले हाथों में
चमन के फूलों का, यायावर घूमना दुश्वार है बाग़ों में
यहाँ हर रात बदलते चाँद पर
बरसता सितारों का क़हर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
इस शहर के पत्थर भी हैं
जहाँ में मशहूर
कोटा साड़ी का जल्वा है
चर्चा है कचौरी का दूर दूर
किस्में नमकीन की हैं लाजवाब
बाफले-बाटी-कत का है दस्तूर
अपनी धुन में जो चलते इंसान की
पत्थरों के शहर में
जिन्दगी चल रही है बदस्तूर
किसकी लगी नज़र कि
ये शहर संगदिल हो गया
चम्बल नदी का वरदान है
यह मुकम्मल हो गया
श्रवण भी समझ बैठा था माता-पिता को बोझ
उन किनारों का शहर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
परत दर परत पत्थरों के
पहाड़ खड़े हैं खाई बढ़ी है
होड़ लगी है गगनचुम्बी इमारतों की
लम्बाई बढ़ी है
क़द छोटा हुआ है इंसानों का
चौड़ाई बढ़ी है
झूठ का मुलम्मा
घूस की मोटाई बढ़ी है
यारी-दोस्ती-मोहब्बतें कम हुई हैं
फ़साद बढ़ा है
इन पहाड़ों को चीरने अब नहीं
कोई फ़रहाद खड़ा है
इस कहकशाँ-ए-शहर में
वो ही रहेगा जिसका दिल
फ़ौलादों का अगर है।
यह पत्थरों का शहर है।।
चलो 'आकुल' इक छोटा सा
नशेमन ही बनायें
पलक परदे हों, नयन
दरपन ही लगायें
बाहों का दर, दोस्ती का
बंधन ही बनायें
बैठें-मिलें यारों की
अंजुमन ही सजायें
बंसी न बजायेगा नीरो
न फिर रोम जलेगा
घर-घर में दीप जलेंगे
गले दुश्मन भी मिलेगा
शहर न उजड़ेगा इसमें गर
नाख़ुदाओं का बसर है।
फिर न कहेगा कोई
यह पत्थरों का शहर है।।
5 अगस्त 2012
अब भी सम्हल मानव
रे अब भी सम्हल मानव
कर प्रेम घन वन
वृक्षों से
छाने को घटा घनघोर।
टूटने को है सब्र का बाँध
निहारती हैं आँखे हर
घड़ी
जाने को है सूखा
सावन
सूने हैं कुँए बावड़ी
घनश्याम के न आने
से
रूठा है वृन्दावन
और
रूठे हैं ब्रजवासी
चहुँओर।
रे अब भी बदल मानव
कम कर बढ़ रहे
संक्रमण को
जगने को प्रफुल्लित हर अलसभोर।
घर में सुत को जैसे
रोज रख ध्यान
मंदर में बुत को जैसे
बुहारता है जैसे
घर आँगन हर रोज
रख साफ गाँव मुहल्ला
रखता है खुद को जैसे
रे संकल्प ले चल मानव
जल बचत वृक्ष संरक्षण
को
आज हो या कल हो कैसा
भी हो दौर।
कोटा, 5-8-2012
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